Classroom Transaction

शब्द का अर्थ नहीं, अर्थ तक पहुँचने की प्रक्रिया — ‘सेवन माने क्या?’

प्राथमिक शाला की कक्षा–5 का एक सामान्य दिन था। पर्यावरण अध्ययन की कक्षा चल रही थी। 23 बच्चे अपनी कॉपियों में ब्लैकबोर्ड पर लिखे प्रश्नोत्तर नोट कर रहे थे। डाइट से आई छात्राध्यापिका पढ़ा रही थीं, और कक्षा में एक आगंतुक भी उपस्थित थे।

उसी दौरान एक बच्चे ने अचानक उस आगंतुक से पूछा —
“सेवन माने क्या?”

आगंतुक ने सहज भाव से उत्तर दिया —
“सात।”

बच्चा बोला — “वो वाला नहीं, वो वाला,” और ब्लैकबोर्ड की ओर इशारा कर दिया।
वहाँ लिखा था — “स्वस्थ रहने के लिए फ्रूट और दूध का सेवन करना चाहिए।”

अब आगंतुक को समझ आया कि बच्चे का प्रश्न किस सन्दर्भ में था।
वे तुरंत उत्तर दे सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।
बल्कि, उन्होंने बच्चे को उत्तर तक पहुँचने की प्रक्रिया में शामिल करने का निर्णय लिया।

उन्होंने उसी प्रश्न को पास बैठे एक और बच्चे से पूछा —
“अच्छा, तुम बताओ सेवन माने क्या?”
बच्चा बोला — “शुद्ध।”

यह उत्तर सुनकर आगंतुक कुछ चकित हुए। उन्होंने पूछा —
“तुम्हें ऐसा क्यों लगा कि सेवन का मतलब शुद्ध है?”

बच्चे ने मासूमियत से जवाब दिया —
“क्योंकि शुद्ध दूध पीने से ही तो हम स्वस्थ रहते हैं न!”

यह जवाब भले ही ‘सेवन’ के सही अर्थ से अलग था, पर यह बताता था कि बच्चे शब्दों का अर्थ अपने अनुभवों से जोड़कर समझते हैं। यही तो सीखने की असली प्रक्रिया है — अर्थ तक पहुँचने की कोशिश।

अब आगंतुक ने बच्चों को सही अर्थ तक ले जाने के लिए वाक्य में थोड़ा बदलाव किया।
उन्होंने ब्लैकबोर्ड पर लिखा —
“स्वस्थ रहने के लिए फ्रूट और दूध का शुद्ध करना चाहिए।”

यह देखते ही दोनों बच्चे एक साथ बोले —
“नहीं-नहीं सर! ये तो गलत हो गया। सेवन का मतलब शुद्ध नहीं होता, कुछ और होता होगा। अब आप बता दीजिए न सर।”

आगंतुक ने मुस्कराते हुए कहा —
“तुम्हीं तो कहते हो कि स्वस्थ रहने के लिए फ्रूट और दूध खाना-पीना चाहिए। तो अब सोचो, इस वाक्य को कैसे लिखोगे?”

अबकी बार बच्चों ने पूरा वाक्य नहीं लिखा, बल्कि सीधे कहा —
“सेवन माने खाना-पीना।”

क्या सीखा इस संवाद से?

आप सोच रहे होंगे — “एक शब्द का अर्थ बताने के लिए इतनी लंबी प्रक्रिया क्यों?”
दरअसल, यह “माथापच्ची” नहीं बल्कि अर्थ निर्माण की प्रक्रिया है।

जब बच्चे स्वयं सोचकर, तर्क करके और संदर्भ देखकर अर्थ निकालते हैं, तब वे न केवल शब्द सीखते हैं, बल्कि सोचने का तरीका भी सीखते हैं।
ऐसी अंतर्क्रियाएँ कक्षा को जीवंत बनाती हैं और बच्चों में भाषाई संवेदनशीलता तथा अर्थ–निर्माण की क्षमता दोनों विकसित करती हैं।

इसलिए अगली बार बच्चे जब कुछ इस तरह पूछे —
तो सीधे उत्तर न दें,
बल्कि उसे अर्थ तक पहुँचने की यात्रा  पर ले जाएँ। अन्य लेख Children’s Research Fair

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By rstedu

This is Radhe Shyam Thawait; and working in the field of Education, Teaching and Academic Leadership for the last 35 years and currently working as a resource person in a national-level organization.

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